बिल्कुल सही ...पर कभी कभी हाथ न भी फिसले पर बर्तन चाक पर ही चढने को तैयार नहीं होता ...:):) और ले लेता है अलग ही रूप ...ऐसा मैंने सच्ची के बर्तनों को भी होते देखा है ..
koi kumbhar nahi chahega..par aisa hota hai ye bhi sahi hai..kabhi kabhi to mata pita ko malum bhi nahi padta ki unke bachcho ki kya durdasha ho jati hai..
sahi kah rahi hain..
जवाब देंहटाएंएक सच है इन पंक्तियों में
जवाब देंहटाएंआदरणीय रश्मि प्रभा जी एवं आपको बधाई....
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही ...पर कभी कभी हाथ न भी फिसले पर बर्तन चाक पर ही चढने को तैयार नहीं होता ...:):) और ले लेता है अलग ही रूप ...ऐसा मैंने सच्ची के बर्तनों को भी होते देखा है ..
जवाब देंहटाएंदीदी,बहुत सुंदर,सटीक और प्रेरणादायी उक्ति है.
जवाब देंहटाएंचिंतनीय उक्ति ! सच यदि सृजनकर्ता का हाथ ही फिसल जायेगा तो सृजन का क्या भविष्य होगा ! इसीलिये रचनाकार की दायित्व बहुत बढ़ जाता है ! बहुत खूबसूरत विचार !
जवाब देंहटाएंसृजन हमेशा सर्जक के इच्छानुसार ही नहीं होता है, हम बनाना कुछ और चाहते हैं और बन कुछ और जाता है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय संगीता दी से पुर्णतः सहमत्।
जवाब देंहटाएंशानदार उत्प्रेरक विचार है।
सहज फ़िसलन, बेध्यानी की फ़िसलन, आलस्य की फिसलन और थकान से फिसलन।
चाक का सहज उबडखाबड चलना, जल्दबाजी से उबडखाबड चलना या धूरी का खराब होना।
माटी के लौंदे में कठीनता की अधिकता, नरमी की अधिकता, चिकनाई की अधिकता या कम चिकनाई का होना। या फ़िर चाक के केन्द्र में न स्थापित होना।
bilkul such kaha apne...
जवाब देंहटाएंदोनों ही बात है ...
जवाब देंहटाएंअक्सर बच्चे उसकी सांचे में ढलते हैं , जिनमे ढला जाए , मगर अपवाद भी होते ही हैं ...
फिसलने वाले हाथ ...किसी का निर्माण कैसे कर सकते है
जवाब देंहटाएंna chahte hue bhi fisal jata hai..:)
जवाब देंहटाएंkaun sa kumhar apne bartano ka sahi roop nahi dena chahega..
ना चाहते हुए हाथ फिसल जाते है ......पर सभी दोष भी तो कुम्हार को ही तो देते है मुकेश ....उसका दोष ना होते हुए ही ..वो दोषी बन जाता है
जवाब देंहटाएंkoi kumbhar nahi chahega..par aisa hota hai ye bhi sahi hai..kabhi kabhi to mata pita ko malum bhi nahi padta ki unke bachcho ki kya durdasha ho jati hai..
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