कुछ लोग ऐसे भी होते सापों के बीच रहते ना जहर पीते ना ज़हर उगलते खुद को बचा कर रखते ज़हर को मिठास से मारते निरंतर मोहब्बत का पैगाम देते ज़िन्दगी खुशी से जीते
"रहने लगते हैं" में गहन भाव है। अर्थात् सांपो की जीवन-शैली अपना लेते है। उनके विष को ही भोजन बना लेते हैं (क्रोध को सहज बना लेते है।) और अमृत को पचाने में असक्षम हो जाते हैं (क्षमा प्रदान कर शान्ति प्राप्त करने में अक्षम हो जाते है)
हमने तो ऐसे भी विषपायी देखे हैं जो ज़हर को अपने में समेटे जीवन भर नीलकंठ बने रहे और अन्य सभी अपने हिस्से का ज़हर भी उन्हें पिला कर खुद सोमरस का स्वाद चखते रहे ! शायद दुनिया की यही रीत है !
कुछ लोग ऐसे भी होते
जवाब देंहटाएंसापों के बीच रहते
ना जहर पीते
ना ज़हर उगलते
खुद को बचा कर रखते
ज़हर को मिठास से मारते
निरंतर
मोहब्बत का पैगाम देते
ज़िन्दगी खुशी से जीते
वाह!! सटीक निर्देशन!! अभूतपूर्व!!
जवाब देंहटाएं"रहने लगते हैं" में गहन भाव है। अर्थात् सांपो की जीवन-शैली अपना लेते है।
उनके विष को ही भोजन बना लेते हैं (क्रोध को सहज बना लेते है।)
और अमृत को पचाने में असक्षम हो जाते हैं (क्षमा प्रदान कर शान्ति प्राप्त करने में अक्षम हो जाते है)
हमने तो ऐसे भी विषपायी देखे हैं
जवाब देंहटाएंजो ज़हर को अपने में समेटे
जीवन भर नीलकंठ बने रहे
और अन्य सभी
अपने हिस्से का ज़हर भी
उन्हें पिला कर खुद
सोमरस का स्वाद
चखते रहे !
शायद दुनिया की यही रीत है !
विष को अमृत में बदलने का हौसला लिए भी आखिर निराश हो जाते हैं , दूसरों का उगला विष भी आखिर कब तक हज़म किया जा सकता है !
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सत्य बात.....आज के परिपेक्ष्य में।
जवाब देंहटाएंआज की स्थिति यही है, विष को अपनाकर लोग अमृत को पचाने में असमर्थ से हो गए हैं... विष के आदी हो गए हैं... गूढ़ चिंतन....
जवाब देंहटाएंसही बात कही है आपने।
जवाब देंहटाएंसादर
जी बिल्कुल सच..
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है कि अब ये बात कहना बेमानी है कि
"चंदन बिष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग"
बिलकुल सही कहा आपने /सार्थक विचार /बधाई आपको
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